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ग़रीबी की परिभाषा

National Issues
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यह बहुत ही आश्चर्य की बात है की भारत सरकार अब तक ग़रीबी की परिभाषा और सही प्रकार उसका मूल्याङ्कन करने में असफल रही है. एक कारण तो यह हो सकता है कि भारत में चाहे जितना शिक्षित और विद्वान हो सोच समझ में USA और इंग्लैंड की विचारधारा का प्रभाव ही दिखता है. यहां जब बात विदेशी सोच की चर्चा की है तो विदेशियों ने कैसे ग़रीबी को मापने का तरीका इस्तेमाल किया है ज़रा इस पर विचार करें. पश्चिमी देशों में जिसमें USA भी शामिल है ग़रीबी का मूल्याङ्कन तुलनात्मक होता है जिसके अनुसार यदि किसी की आमदनी ऐसी है जिसके आधार पर औसत जीवन यापन स्तर सम्भव नहीं है तब उस व्यक्ति को ग़रीब समझा जाता है. ग़रीबी मापने के दो तरीके हो सकते हैं, एक तुलनात्मक का वर्णन अभी किया गया है, दूसरा है जिसे परम(absolute ) मूल्याङ्कन कह सकते हैं. भारत में ग़रीबी का मूल्याङ्कन परम ग़रीबी के आधार पर होता है. यदि आमदनी ऐसी है कि व्यक्ति जीवन यापन न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति करने में सक्षम नहीं है तो उसे ग़रीब कहा जाता है. इस परिभाषा पर चले तो किसी भी व्यक्ति की आमदनी ग़रीबी से बाहर होने के लिए इतनी होनी चाहिए कि उसे और उसके परिवार को भरपेट खाना नसीब हो तथा न्यूनतम कपडे उन्हें नसीब हो.
इसी परिभाषा से भारत सरकार काम करती आई है जबसे आज़ादी मिली है और हमारी जनता ग़रीबी की ज़ंज़ीर में फँसी है यदि लक्ष्य इतनी हास्यास्पद हो तो उम्मीद क्या की जाए. पर भूखे को भोजन मिले फिर उनका मत चुनाव में ज़रूर मिलेगा और कांग्रेस इस काम में माहिर है. समाज
के ग़रीब भाइयों और बहनों के साथ यह बहुत बड़ा धोखा है कि ग़रीबी की अनुचित परिभाषा का प्रयोग जनता को ग़रीब रखने के लिए किया गया है और भारत की कोई पार्टी चाहे भाजपा हो या बहुजन समाज पार्टी या सपा या राष्ट्रीय जनता दल किसी ने ग़रीबी की इतनी अनुचित परिभाषा की ओर ऊँगली नहीं उठायी और जनता को सब मिलकर धोखा देते रहे.
किसी ने इस ओर ध्यान नहीं दिया कि सिर्फ पेट भर भोजन करना और तन पर केवल कामचलाऊ कपडे होना न्यूनतम जीवन यापन के लिए पर्याप्त नहीं है. भोजन वस्त्र आवास की सुविधाओं के साथ साथ उचित शिक्षण प्रशिक्षण तथा मेडिकल सुविधाओं को भी पर्याप्त होना है. ग़रीबी की परिभाषा और मूल्याङ्कन ही जब त्रुटिपूर्ण हो तब राजनेताओं और उनके अंतर्गत नौकरशाही आर्थिक विशेसग्यों और प्रायोजना अधिकारीयों की ईमानदारी और विश्ववषणीयता पर सवालिया निशाँ खड़ा हो जाता है.
जनतंत्र में जनता के पास शक्तिशाली अस्त्र है मतदान. हमारी जनता अशिक्षित तथा भूखी ई होने के कारण जातिवाद सम्प्रदायवाद के दबाव में मतदान करती है इस तरह जिससे ग़लत लोग चुनाव जीत कर सत्ता में आ जाते हैं और फिर वही नीतियां लागू की जाती हैं जो ग़रीबों को ग़रीबी की ज़ंजीर में ही लिपटी रखती हैं. यह नाइंसाफ़ी तथा ग़ैज़िम्मेदार भेद भाव पिछले ६७ सालों से चला आया है.
भारत की जनता ग़रीब ज़रूर है पर बेईमान नहीं हैं. अच्छे भले की पहचान उन्हें है पर ग़रीबी और लाचारी उन्हें ग़लत मतदान के लिए मजबूर कर देती है. यह ज़रूरी है कि मतदान का प्रशिक्षण उन्हें हमेशा दिया जाए ताकि अपनी भलाई तथा समाज और राज्य और देश की भलाई को ध्यान में रखते हुए मतदान करें. बरसाती मेंढक की तरह केवल चुनाव के समय उनके पास जाकर चिकनी चुपड़ी बातें कर उनका मत हासिल करने के व्यवहार को बंद करना आवश्यक है और इसके लिए ईमानदार और समाज सेवी भाव से काम करने वाली पार्टियों से यह उम्मीद की जाती है कि अपने कार्यकर्ताओं को इस पुनीत काम के लिए शीघ्र प्रेरित कर जनता के प्रशिक्षण का काम करें. लोगों को राजनीति जन कल्याण की भावना से करना चाहिए. लेकिन ऐसा होता नहीं.
राजनीति में आकर कैसे पथ से विचलित होकर काम किया जाए और अपनी शक्ति का प्रदर्शन किया जाए इसका पाठ केजरीवाल से लेना चाहिए. लगता है केजरीवाल कांग्रेस की ग़ैर ज़िम्मेदाराना हरकतों का अच्छा अध्ययन करने के बाद दिल्ली सरकार का कार्य उनके पदचिन्हों पर कर रहे हैं और कांग्रेस की भाँति अन्य को ग़ैरज़िम्मेदार समझते हैं. उन्हें पद के नशे में यह भी पता नहीं रहता कि दिल्ली पूरा राज्य नहीं है, यह नगर निगम के ऊपर का दर्जा है और पूर्ण राज्य से निम्न दर्जा है. फिर भी वे हमेशा अपनी ताक़त आज़माने और सुचारू रूप से काम न करने और न करने देने में गौरवान्वित हैं. जैहिंद.

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