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तीन तलाक़ प्रथा की न्यायिक जांच. भारत की कमज़ोरी – निर्बल न्यायायिक पद्धति

National Issues
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हमारी society के एक राष्ट्रीय शुभचिंतक ने whatsapp के ज़रिये यह अभिव्यक्ति प्रसारित किया जिसे पढ़ने के बाद मुझे इसकी प्रेरणा मिली कि मुस्लिम महिलाओं की प्रताड़ना से संबंधित तथा मुस्लिम धर्म के त्रुटिपूर्ण निष्कर्षों के सम्बंध में मैं यह ब्लॉग लिखूँ.
.भारत के उच्चतम न्यायालय के सामने तीन तलाक़ के मुद्दे को सामने रखा गया है जिसकी सुनवाई 11 May से शुरू हुई. इस सम्बंध में 5 जजों की टीम बनी.
मैं यहाँ उद्धृत करूँगा whatsapp में प्रसारित अभिव्यक्ति और यह है “सुनवाई के पहले ही दिन कोर्ट ने कहा था कि अगर तीन तलाक़ का मामला इस्लाम धर्म का हुआ तो उसमें हम दख़ल नहीं देंगे. इस पर बॉलीवुड अभिनेता अनुपम खेर ने तीखे शब्दों का इस्तेमाल करते हुए कहा कि ठीक है माई लॉर्ड, अगर आप धर्म के मामले में दख़ल नहीं देना चाहते तो जलिकट्टू, दही हांडी, गो हत्या, राम मंदिर जैसे कई हिंदुओं के मामले हैं जिसमें आप बेझिझक दख़ल देते हैं. क्या हिन्दू धर्म आपको धर्म नहीं लगता? या फिर आप मुसलमानों की धमकियों से डरते हैं? अगर आप क़ुरान में होने से तीन तलाक़ को मानते हैं तो पुराण में लिखे नराम के अयोध्या में पैदा होने को क्यों नहीं मानते?
हमें भी बताइए, यह सिर्फ़ मैं नहीं पूरा देश जानना चाहता है.” इसे पढ़ने के बाद क्या देश के समझ में यह बात नहीं आती कि कोर्ट सिर्फ़ दिखावा है. ये जो काला गाउन पहने पुरुष और महिला के रूप में जज हैं इनके निर्णयों को मान्य समझना मुश्किल है अगर यह मामला कहीं भी इस्लाम धर्म से सम्बंध रखता है.
इस संदर्भ में माननीय सलमान ख़ुर्शीद की भूमिका बहुत सराहनीय और विवेकपूर्ण है. उच्चतम न्यायालय ने सलमान ख़ुर्शीद की राय इस तीन तलाक़ के सम्बंध में अनिवार्य समझा. श्री खुर्शीद वक़ील होने के साथ साथ अनुभवी राजनेता हैं और मैं समझदारों इनकी क़द्र करता हूँ. कांग्रेस से जुड़े रहना परम्परागत इनकी मजबूरी है पर फिर भी इनके सूझबूझ पर शक नहीं होना चाहिये.
इन्होंने अपने निष्कर्ष में जो विचार कोर्ट के सामने रखा उनके अनुसार क़ुरान में तीन तलाक़ की चर्चा नहीं है. मैं आपका ध्यान अपने 22 अप्रैल 2017 के ब्लॉग की ओर ले जाना चाहूंगा जो दैनिक जागरण में प्रकाशित है. इस ब्लॉग में तीन तलाक़ की प्रथा के सम्बन्ध में कहा गया है जो Islam के इतिहास के आधार पर है. शरीया नियम कुरान के अस्तित्व में आने के लगभग तीन
सौ साल के बाद लिखा गया उन क़बीले के लोगों के सोच के आधार पर जो महिलाओं की
सोचसमझ को हीन समझते थे. महिलाओं को ये अपनी संपत्ति समझते थे और इस संपत्ति को और निजी संपत्ति की तरह खरीदना बेचना बदलना उचित और नियमानुसार समझा जाता था. और यह मानसिकता उन दिनों सिर्फ इस्लाम के अनुयायिओं तक सीमित नहीं थी. अन्य धर्मों के अनुयायी भी महिलाओं को निजी संपत्ति समझते थे. अब ज़माना बदल गया है और धर्म के नाम पर महिलाओं पर अत्याचार असहनीय है. इस्लाम के मुल्ला अपनी जगह को क़ायम रखना चाहते
हैं और इस कारण शरिया की प्रथा को ज़िंदा रखना चाहते हैं.

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